Posts

Showing posts from September, 2020

🌷पुरुष-प्रकृति🌷

Image
 पुरुष-प्रकृति                           🙏पुरूष-प्रकृति🙏 पुरुष प्रकृति के रूप मेँ हरि ने रच डाला सारा संसार एक दूसरे से मिलने का बना दिया संयोग विचार। शोभा प्रकृति तभी पाती जब साथ पुरुष का मिल जाए पुरुष बिना यह प्रकृति अधूरी और प्रकृति बिन यह संसार। जीवन क्या है प्रकृति पुरुष है मरण बिछोह है दोनो का हम एक दूजे को समझे और रचे नित नयी सृष्टि अपार।। पुरुष प्रकृति के रूप मेँ हरि ने रच डाला सारा संसार।।                             कश्यप                           05-11-12               https://www.youtube.com/c/AcharyaKashyap

लघु कृति

Image
  फिर वही करुण क्रन्दन ! हृदय को विदीर्ण करता भयावह मुख मुद्रा तपता जलता बदन चंदन । फिर वही करुण क्रन्दन ।। क्रोधातिरेक से काँपता हुआ हाथ अपने नब्ज़ अपनी नापता हुआ , थरथराती पुतलियाँ नसोँ मेँ नील रक्तस्पंदन । फिर वही करुण क्रन्दन ।।                                 कश्यप                                     04-11-12               https://www.youtube.com/c/AcharyaKashyap

❣️सर्व शक्तिमान दिल?❣️

Image
                        ❣️ सर्व शक्तिमान दिल ❣️ शरीर विज्ञान में सबसे जटिल कार्य- कलाप मुझे दिल का जान पडता है। सबसे बडी जिम्मेदारी दिल को दी गयी है हमारे इस भौतिक शरीर मे। कोई विपत्ति आते देखकर यह जोरों से धडकने लगता है । जब वियोग उत्पन्न हो तो यही दिल विरह वेदना मे तडपता भी है और तब हम कहते हैं कि अमुक के बगैर दिल लगता नहीं । जब प्रेम-प्यार के बिषय की बात हो तो इस दिल का कार्य और बढ जाता है, बल्कि अगर ये कहें कि इस विषय की सारी जिम्मेदारी ही दिल सम्भालता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब प्रेमी- प्रेमिका मिलते हैं तो उनके बीच जो लेन- देन होता है वो कुछ और नही दिल ही होता है॥ वो एक दूसरे का दिल ले लेते हैं, कैसे? मुझे नही पता । अगर प्रेम सम्बन्ध बिच्छेद होता है तो टूटना भी आखिर मे दिल को ही पडता है। दिल एक मन्दिर भी है। दिल एक घर भी है, कहते हैं इसमे बाकायदा रहा भी जा सकता है, कैसे? नही मालूम । साहित्यकारों , नाटककारों, गीतकारों, कहानीकारों आदि ने दिल के सम्बन्ध मे खूब लिखा है, पर शायद ये किसी ने नही लिखा की ये सारी जिम्मेवारी दिल को ही क्यूँ है। दिल रोता भी है, दिल हँसता भी है । दिल एक

*कालभैरवाष्टकम्*

Image
                                        काशी के कोतवाल बाबा कालभैरव जी   कालभैरवाष्टकम् -       ॐ यं यं यं यक्षरूपं दशदिशिवदनं भूमिकम्पायमानं सं सं संहारमूर्तिं शिरमुकुटजटाशेखरं चन्द्रबिम्बम्। दं दं दं दीर्घकायं विकृतनखमुखं चोर्ध्वरेखा कपालं पं पं पं पापनाशं प्रणत पशुपतिँ भैरवं क्षेत्रपालम् ।१। रं रं रं रक्तवर्णं कटिकटिततनुं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालं घं घं घं घोषघोषं घ घ घ घ घटितं घर्घरं घोरनादम्। कं कं कं कालपाशं धृकधृकधृकितं ज्वालितं कामदेहं तं तं तं दिव्यदेहं प्रणत पशुपतिँ भैरवं क्षेत्रपालम् ।२। लं लं लं लं वदन्तं ल ल ल ल ललितंदीर्घजिह्वाकरालं धुं धुं धुं धूम्रवर्णं स्फुटविकटमुखं भास्करं भीमरूपम्। रुं रुं रुं रुण्डमालं रवितमनियतं ताम्रनेत्रं करालं नं नं नं नग्नभूषं प्रणत पशुपतिँ भैरवं क्षेत्रपालम् ।३। वं वं वं वायुवेगं नतजनसदयं ब्रह्मपारं परं तं खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवननिलयं भास्करं भीमरूपम्। चं चं चं चं चलित्वा चलचलचलितं चालितं भूमिचक्रं मं मं मं मायिरूपं प्रणत पशुपतिँ भैरवं क्षेत्रपालम् ।४। शं शं शं शङ्खहस्तं शशिकरधवलं मोक्षसंपूर्णतेजं मं मं मं मं महान्तं कुलमकुलकुलंमन्त्रगुप्तं सुन

-स्वर्णपथ-

Image
~~   स्वर्णपथ~~ आप दुःख, चिन्ता या निराशा के गहन अन्धकार मेँ भटकने के लिए नही जन्मे है, न आपको निर्जीव मुर्दे के समान निर्बलता, भय, चिन्ता, कमजोरी आदि दुष्ट विकारोँ का ही शिकार होना है। आपको अपवित्र विचार अस्त-व्यस्त नही कर सकते। जिन मार्गो से आपकी जीवन शक्ति का ह्रास होता है, वे आपके लिए नहीँ है।आप दैवी शक्तिसम्पन्न महत्वपूर्ण व्यक्ति है। समाज मेँ आपका प्रतिष्ठित पद है। आपके हिस्से मे सच्चा सुख आया है। आप एक सजीव दैवीय शक्तिसम्पन्न आत्मा है। आपका स्वरूप सत्-चित्-आनन्दमय है। आपके कण-कण मे दिव्य प्रवाह बह रहा है। आपको इस आनन्दमय जगत् में आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करना है। सदा विकसित पुष्प के समान खिले रहना है। आप कभी निराश न हो, चट्टान की तरह कर्तव्य मार्ग पर दृढ़ रहेँ और आनन्दपूर्वक अग्रसर होते रहे। आनन्दमय विचारो मे डूबे रहने से आरोग्य, दीर्घजीवन और मानस शान्ति प्राप्त होती है, खिलख़िलाकर हँसने से रक्त संचालन की गति तीव्र होकर स्फूर्ति आती है, मानसिक रोग दूर होते हैँ। परमेश्वर स्वयं आनन्दमय हैँ । वे प्रसन्नता और स्फूर्ति का केन्द्र हैं।आनन्दमय स्वरूप को पहचानिए और अपने आनन्दमय वातावरण का

वेदमन्त्रपाठ

Image
  पुरुष सूक्त (शुक्ल यजुर्वेद) हरिः ॐ।। सहस्रशीर्षापुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। सभूमिं सर्व्वतस्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्।।१ पुरुषऽएवेदं सर्व्वंय्यद्भूतंय्यच्चभाव्यम्। उतामृतत्वस्येशानोयदन्नेनातिरोहति।।२ एतावानस्यमहिमातोज्ज्यायाँश्चपूरुषः पादोस्यव्विश्वाभूतानित्रिपादस्यामृतन्दिवि।।३ त्रिपादूर्ध्वऽउदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः। ततोव्विष्ष्वङ्व्यक्रामत्त्साशनानशनेऽअभि।।४ ततोव्विराडजायतव्विराजोऽअधिपूरुषः। सजातोअत्यरिच्यतपश्चाद्भूमिमथोपुरः।।५ तस्माद्यज्ञात्सर्व्वहुतःसम्भृतम्पृषदाज्यम्। पशूँस्ताँश्चक्रेव्वायव्यानारण्याग्ग्राम्याश्चये।।६ तस्माद्यज्ञात्सर्व्वहुतऽॠचः सामानिजज्ञिरे। छन्दां सिजज्ञिरेतस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।७ तस्मादश्वाऽअजायन्तयेकेचोभयादतः। गावोहजज्ञिरेतस्मात्तसमाज्जाताऽअजावयः।।८ तंय्यज्ञम्बर्हिषिप्प्रौक्षन्न्पुरुषञ्जातमग्ग्रतः। तेनदेवाऽअयजन्तसाद्ध्या ॠषयश्चये।।९ यत्परुषंव्यदधुःकतिधाव्यकल्पयन् । मुखङ्किमस्यासीत्किम्बाहूकिमूरूपादाऽउच्च्येते।।१० ब्राह्मणोस्यमुखमासीद्बाहूराजन्यः कृतः। ऊरूतदस्ययद्वैश्यःपद्भ्यां शूद्रोऽअजायत।।११ चन्द्रमामनसोजातश्चक्षोःसूर्योऽअजायत। श्श्रोत्राद्वायुश