देवालय को श्रद्धा,भक्ति,उपासना का केंद्र बना रहने दें,पर्यटन स्थल न बनाएं।

 


श्री काशी विश्वनाथ जी



वैष्णो देवी मंदिर में हुए हादसे ने यह सिद्ध कर दिया है की मंदिर,तीर्थस्थान - दर्शन,तपस्या,आध्यात्मिक ऊर्जा की विषय वस्तु हैं न कि पर्यटन के, पिकनिक के,घूमने के,छुट्टी मनाने के स्थान।

परंतु आज की सरकारें और जनमानस के लोग इसे शायद समझ नही पा रहे।

एक समय था जब लोग बद्रीनाथ - केदारनाथ यह सोच कर जाते थे की स्वर्ग जा रहे हैं क्या पता लौटेंगे या नहीं, यात्रा दुर्गम थी, पहाड़ों की चढ़ाई थी, और इसी से दर्शनार्थी की हिम्मत,श्रद्धा,भक्ति और तपस्या का भी आंकलन हो जाता था की वह देव दर्शन की कितनी चाह रखता है।

परंतु आज का समय है अब दुर्गमता सुगमता में बदल चुकी है, धड़धड़ाते हुए वाहन हेलीकॉप्टर सब देवता के मस्तक तक पहुंच जा रहे हैं, वीo आई o पी o कल्चर आ गया है जेब में पैसा है तो आप देवता के कपार तक हेलीकाप्टर से जा सकते हैं।

देवता लोग भी सोचते होंगे की हम इतनी दुर्गम जगह पर जाकर बैठे थे की हमे कोई डिस्टर्ब न कर सके लेकिन पहले तो जो आते थे वे श्रद्धा भक्ति ले के आते थे तो मुझे भी उनको आशीर्वाद देने का मन कर ही जाता था, लेकिन आज तो कूल ड्यूड,लौंडा लफाड़ी,आस्तिक,नास्तिक सब ऊपर चढ़े आ रहे हैं बस जेब में गांधी जी होना चाहिए। नौकरी की छुट्टी होनी चाहिए।
ये आऐंगे होटल में मीट मुर्गा खायेंगे, दारू पियेंगे, फिर बेल बाटम पहन के परम श्रद्धालु बनकर सरपट मुझ तक पहुंचेंगे, फोटो खींचेंगे,वीडियो बनायेगें, खायेंगे पियेंगे मस्ती करेंगे और लौट जायेंगे।

इन बातों को समझना होगा, हमें भी सरकारों को भी।
मंदिर के अंदर जहां देवता की मूर्ति,यंत्र,प्रतिमा या लिंग स्थापित होती है उसे गर्भ गृह कहा जाता है,
गर्भगृह में प्रवेश करने,देवता को स्पर्श करने की पहले तो आपमे सामर्थ्य होनी चाहिए, तन और मन, वस्त्र की शुद्धता होनी चाहिए,

वैसे भी प्राचीन परंपरा के अनुसार विग्रह का स्पर्श नहीं करना चाहिए, आप दर्शन के लिए गए हैं तो नेत्रों से दर्शन करिए,मूर्ति को हृदय में धारण करिए ,यदि कुछ गंध पुष्प धूप दीप लाए हैं तो उसे खुद चढ़ाने की जगह अर्चक से चढ़वाएं, हृदय में देवता को धारण करके वहां से प्रस्थान करना चाहिए, अब आप कभी भी कहीं भी उस विग्रह का जब ध्यान करेंगे तो वह मूर्ति आपके हृदय से होकर नेत्रों तक जाएगी और आपको क्षण मात्र में दर्शन हो जायेगा, बार बार मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं होगी।

लेकिन ये बातें आज के समय में कौन किसे समझाए, लोग राजनीति के चश्मे से तुरंत आपको किसी पार्टी विशेष का सिद्ध कर देंगे।

देवताओं की जब प्राण प्रतिष्ठा होती है तो देव कला की सानिध्यता के लिए न्यास किया जाता है। मंदिर का न्यास और प्रतिष्ठा की जाती है।
जिसमें ---
सर्वदेव साधारण में
 प्रणव न्यास
व्याहृति न्यास
मातृकान्यास
ग्रह नक्षत्रादिन्यास
मास कालन्यास
वर्णन्यास
स्तोयन्यास
वेदवेदांगादिन्यास
वैराजन्यास
देवतान्यास
क्रतुन्यास
गुणन्यास
शक्तिन्यास
मंत्रन्यास
निवृत्तिन्यास
किया जाता है, इसके अलावा जिस देवता का विग्रह है उनका न्यास अलग से किया जाता है।
जिस स्थान पर विग्रह स्थापित करनी होती है वहां पर
कूर्म शिला
पंचरत्न
स्वर्ण
ब्रह्मशिला
आसन शिला स्थापित की जाती है। तथा उसमें बहुत से रत्न औषधियों को डाला जाता है
तब उसके ऊपर विग्रह की स्थापना,चल-अचल प्राणप्रतिष्ठा की जाती है तथा विग्रह का संस्कार सम्पादन किया जाता है ।
धीरे -धीरे वह विग्रह जब विधि विधान से अर्चक द्वारा पूजी जाती है तो वह जागृत होने लगती है, और दर्शन मात्र से सकल कार्य सिद्ध कर देती है।

आज की स्थिति यह है कि अचल प्रतिष्ठित मूर्ति, मंदिर को जब मन हो तोड़ दे रहे हैं अपने मतलब के मुताबिक कभी यहां तो कभी वहां स्थापित भी कर दे रहे हैं।

प्रतिष्ठा के मुहूर्तों, कर्मकांड की विधियों का सर्वथा त्याग किया जा रहा है, ये कर्मकांड अब ढकोसला बनते जा रहे हैं।

तो उसी तरह देवता भी मंदिरों से विग्रहों से अपनी कला को समेट कर गायब हो जा रहे हैं वहां बच रही सिर्फ पाषाण मूर्ति,जिसे दिन भर घिसिये,खूब दूध दही चढ़ाइए तब भी मनोकामना पूरी नही हो रही और फिर लोग यह भी कह रहे कि हम तो लगातार रोज ही दर्शन कर रहे फिर भी काम नही बन रहा। तो भैया बनेगा कैसे काम।

कर्मकांड बड़ी जटिल प्रक्रिया है।
एक कर्मकांडी बनने में एक आई0ए0एस0 बनने से ज्यादा मेहनत करनी होती है और उस पर यह भी की गुरु आपको अच्छा मिले तो।
लेकिन आज कर्मकांडी ब्राह्मणों को भी हेय दृष्टि से देखा जा रहा, समझने की बात है आपका धर्म कर्म वेद शास्त्र इन्ही कर्मकांडी,पुरोहितों,साधुओं,सन्यासियों,पंडितों ने सहेज कर रखा है, नही तो जितना आक्रमण भारत ने झेला है सब कुछ लुप्त हो गया होता।

कहने का तात्पर्य यह कि मंदिरों को आस्था,श्रद्धा,भक्ति,तपस्या का स्थान ही बने रहने दें।

जय विश्वनाथ

✍️ पं0 सतीश चन्द्र पाण्डेय "आचार्य कश्यप"

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